धर्मधारा
मनुष्य जब धरती पर आता है तो एक लक्ष्य, एक उद्देश्य लेकर आता है। चाहे वह उसे पूरा कर सके या न कर सके, पर हर व्यक्ति के जन्म लेने के साथ ही उसके जीवन का एक ध्येय, एक लक्ष्य, एक उद्देश्य साथ जुड़ जाता है। यदि हमारे जीवन का कोई लक्ष्य या उद्देश्य न होता तो हमारे जीवन में व जानवरों के जीवन में भारी अंतर नहीं रह जाता। पक्षियों के, पशुओं के जीवन के दो ही मुख्य उद्देश्य दिखाई पड़ते है-अपना पेट भर लेना और अपना परिवार बड़ा कर लेना। इसके अतिरिक्त कोई तीसरा उद्देश्य पशु जीवन का दिखाई नहीं पड़ता। इसके विपरीत मनुष्य को चिंतन की, भावनाओं की, दृष्टिकोण की क्षमता परमात्मा न देकर भेजा है। इन सब गुणों को, विशेषताओं को देने के पीछे परमात्मा का यह उद्देश्य था कि इनको उपयोग में लाकर इन्सान अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सके। इन्सान का जीवन लक्ष्य इन्सानियत के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। मानव जीवन का उद्देश्य मानवता ही कहा जा सकता है। इसी को गोस्वामी तुलसीदास जी ने धर्म की परिभाषा के रूप में भी स्वीकार किया है- पर हित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। जिसे दूसरे की पीड़ा को देखकर स्वयं भी पीड़ा का अनुभव होता है, उसे देखकर ही यह कहा जा सकता है कि इसके भीतर इन्सानियत है। यह इन्सानियत की भावना ही हमें जानवरों से भिन्न करती है और हमें, हमारेे जीवन लक्ष्य से परिचित कराती है। इसी को ध्यान में रखकर परम पूज्य गुरुदेव ने प्रज्ञा पुराण में लिखा है-परोपकाररहित मनुष्य के जीवन को धिक्कार है, उसकी तुलना में तो पशु श्रेष्ठ है-उसका कम से कम चमड़ा तो काम आ जाएगा, परंतु मानवतारहित मनुष्य का जीवन तो किसी के भी उपयोग का नहीं रहता। हमें इन्सानियत को ही अपना जीवन लक्ष्य मानकर जीवन जीना चाहिए।