धर्मधारा
आ दिशंकराचार्यकृत प्रसिद्ध वैराग्य ग्रंथ विवेकचूड़ामणि में साधन चतुष्टय (18-32) के नाम से उन्होंने प्रत्येक साधक के लिए साधना में सफलता हेतु चार साधनों की बात कही है। ये चार साधन विवेक, वैराग्य, षड्संपत्ति और मुमुक्षुता के नाम से पुकारे गए हैं। इन षड्संपत्तियों में शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा एवं समाधान आते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि छह तरीके की संपत्ति साधक में, साधना करने वाले व्यक्ति में होनी चाहिए। इन षड्संपत्तियों में तितिक्षा का विशेष महत्व है।
तितिक्षा का मतलब है-धैर्य और प्रसन्नता के साथ व्यक्ति के अंदर कष्ट-कठिनाइयों को सहन करने की योग्यता। तप और तितिक्षा देखने में एक समान प्रतीत होते हैं, लेकिन इनमें थोड़ा अंतर है। तप संकल्पपूर्वक किया जाता है और तितिक्षा धैर्यपूर्वक। तप की प्रक्रिया एक निश्चित अवधि के लिए होती है, जैसे कि हम 40 दिन का अनुष्ठान कर रहे हैं या हम एक वर्ष का पुरश्चरण कर रहे हैं और हमने अनुशासन तय किए कि हम एक समय भोजन करेंगे या इस तरह की जीवनशैली अपनाएंगे, जमीन पर सोएंगे। ऐसा करके हम तप के अनुशासन नियत करते हैं और संकल्पपूर्वक हम उनको पूरा करते हैं और यह तप एक निश्चित अवधि के लिए होता है।
इस तरह तप हमारा संकल्प होता है, उसकी अवधि निश्चित करना हमारा अधिकार होता है, लेकिन तितिक्षा हमारा संकल्प नहीं होता है। अगर तितिक्षा संकल्पपूर्वक हो तो भी उसकी कोई अवधि नहीं होती है, लेकिन तप से ज्यादा हमें तितिक्षा में दृढ़ता की जरूरत पड़ती है। तप में तो हमें मालूम होता है कि नौ दिन का यह अनष्ठान है। नौ दिन के बाद हम अपने स्वाभाविक जीवन में लौट सकते हैं, लेकिन तितिक्षा कब तक? मालूम नहीं कब तक सहन करना है? लेकिन इसमें प्रसन्नतापूर्वक अपनी मर्जी से सहन करना होता है।
हमारे जीवन में सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख, मान-अपमान कब आएंगे और कब जाएंगे, ये जीवन की आंतरिक व बाह्य परिस्थितियां निर्धारित करती हैं, इन पर हमारा वश नहीं होता। हमारी जिंदगी में मौसम के अनुसार सर्दी-गर्मी आती है, लेकिन सुख-दु:ख, मान-अपमान ये काल व हमारे कर्म निर्धारित करते हैं। इसलिए जीवन में कभी सुख हो सकता है, कभी दु:ख हो सकता है, कभी मान हो सकता है, कभी अपमान हो सकता है।
हमें यह नहीं मालूम होता कि काल व हमारे कर्म हमारे लिए क्या लेकर आ रहे हैं।
प्राय: यह देखा जाता है कि हम अपनी परिस्थितियों से उत्तेजित होते हैं, विचलित होते हैं, घबराते हैं, क्रोधित होते हैं, बदला लेने की ठानते हैं, द्वेष कर बैठते हैं, वैमनस्य कर लेते हैं और शत्रुता का संकल्प ले लेते हैं,