बाल प्रतिभा का स्पंदन नैसर्गिक कौशल श्रम...
ब्रेक के बाद
शक्तिसिंह परमार
कि सी भी राष्ट्र का भविष्य उसके नौनिहाल होते हैं... मजबूत राष्ट्र की नींव का आधार भी इन्हीं को माना जाता है... अगर इनके पालन-पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य और प्रतिभा तराशने के चरणबद्ध अवसरों को नियमों के अनुसार अमल में लाया जाए तो उज्ज्वल राष्ट्र निर्माण निमित्त एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण नौनिहालों के द्वारा संभव है, जिनमें हम स्वयं का, परिवार का, समाज का और राष्ट्र का स्वर्णिम स्वप्न देखते हैं... क्योंकि किसी भी राष्ट्र की प्रगति में सबसे बड़ा अवरोधक वह बचपन है, जो लावारिस है... सुविधाओं से वंचित है और पेट की भूख मिटाने के लिए जिसे निषेध श्रम के बोझ के चलते बचपन कब गुम हो गया, इसका भान ही नहीं रहता... और जब बचपन आया ही नहीं और दो जून की रोटी के लिए जीवन कब बाल्यकाल से प्रौढ़ता में पहुंच गया..? ये बाल्यकाल से जुड़ी ऐसी घटनाएं हैं, जिनके कारण वर्तमान तो प्रश्नांकित होता ही है, भविष्य भी घोर अंधकार का संकेत करता है... उसके क्या-क्या और कितने घातक नुकसान समाज और राष्ट्र को उठाना पड़ते हैं, यह हम आजादी के बाद से लगातार देखते रहे हैं कि किस तरह से नौनिहालों की एक बड़ी आबादी अपना बचपन 'बालश्रमÓ में पिसकर खत्म कर देती है... भारत के संविधान में अनेक प्रावधान हैं, जो बालकों के हित के लिए बनाए गए हैं... इन्हीं प्रावधानों की जमीन पर हम यह दावा करते हैं कि बच्चों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं होने देना है... लेकिन उन्हीं बालकों के लिए समाज-राष्ट्र के मौलिक कर्तव्य निर्वाह की जब बात आती है तो हर कोई पीछे ताकने लगता है... परिणामत: स्थिति जस की तस बनी रहती है...
भारत के संविधान में सभी नागरिकों आजू-बाजू की भांति बालकों के लिए भी संवैधानिक व्यवस्था और कानूनसम्मत नियामवली बनाई गई... न्याय, सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक स्वतंत्रता, विचारों की स्वतंत्रता, विश्वास एवं पूजा का अधिकार जैसी बातें तो प्रमुखता से शामिल हैं... साथ ही बालकों के लिए राइट टू एजुकेशन (शिक्षा का अधिकार) अधिनियम के आधार पर 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा की बात कही गई है... लेकिन 6 से 14 वर्ष के बच्चों को जब हम शिक्षा के बजाय बंधवा मजदूरी एवं वे सभी गैर कानूनी 'बालश्रमÓ करते हुए खुलेआम देखते हैं, तब सवाल उठता है कि क्या निषेध 'बालश्रमÓ के बोझतले दबा भारत का यही भविष्य एक मजबूत राष्ट्र का आधार बनेगा..? संविधान में राज्यों को निर्देशित किया गया है कि बच्चों को समान अवसर, स्वतंत्रता एवं सम्मान का जीवन जीने का अवसर प्रदान किया जाए, इसके लिए 'बालश्रमÓ को निषेध करने के लिए अनेक कानून बनाए गए, लेकिन कानूनों की सूची जितनी लंबी है, उससे कहीं अधिक बाल श्रमिकों का आंकड़ा दिन-रात बढ़ रहा है... किसी भी राष्ट्र की नींव बड़ी कमोजीर भी है..!
भारत में 'बालश्रमÓ के व्यापक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि 2011 की जनगणना को आधार मानें तो 5 से 14 आयु वर्ग के 259.6 मिलियन में से 10.1 मिलियन बच्चे कामकाजी हैं... यानी 1971 में 1.07 करोड़ बाल श्रमिक थे, जो 2011 में भी 1.01 करोड़ बने हुए हैं... इस 50 साल की यात्रा में बाल श्रमिकों की संख्या में कमी तो ला पाए, लेकिन अभी भी स्थिति संतोषजनक नहीं मानी जा सकती... क्योंकि 6 से 14 वर्ष का बचपन जब आजीविका कमाने को नियोजित है, तो वह 'बालश्रमÓ कहलाता है, जो किसी अपराध की श्रेणी में आता है... आज अधिकारों का खुला हनन आज आम बात है... कम उम्र में पैसा कमाने के लिए निषेध श्रम को अंगीकार करना बच्चों की मजबूरी या आवश्यकता दोनों माना जा सकता है... फिर ऐसे बालकों के बड़े समूह पर ऐसे निषेध 'बालश्रमÓ का नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है, वे शिक्षा से ही वंचित नहीं होते, बल्कि अपने बचपन के आनंद, खेल एवं स्वास्थ्य की प्राथमिकताओं को भी गंवा देते हैं...
एक बच्चा जब अपने परिवार और परिवेश में यह देखता है कि उसका पिता, पालक अथवा परिजन बहुत गरीब हैं, पिता शराब का आदी है और बीमार मां असहाय है, तब उसका बचपन श्रम की भेंट चढ़ जाता है... वह मजबूरी में घर खर्च, बीमार मां की दवाई हेतु अपने बचपन के साथ समझौता करने को मजबूर हो जाता है... जबकि बच्चों को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए ऐसी परतंत्रता से मुक्त होना चाहिए... उस परतंत्रता से जहां बाल श्रम के ठेकेदार यह तय करते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं..? क्योंकि बचपन को किसी सीमा में या बंधन में बांधना उसके मौलिक भावों, विचारों, संवेदनाओं और कुशल स्वभाव को कुंठित करते हुए पहरा बैठाने जैसा है... इसका हमेशा नकारात्मक परिणाम ही सामने आता है... क्योंकि हम बार-बार या हमारी सनातन जीवनशैली के उदाहरणों को देखकर यह पाते हैं कि अगर बच्चों को बाल्यकाल से ही उनकी प्रतिभा को तराशने के अवसर दिए जाएं, खुले गगन के पंछी की भांति उन्हें उन्मुक्त वातावरण दिया जाए, वे निषेध श्रम की आर्थिक जद्दोजहद के बजाय कौशल प्रतिभा को तराशने की तरफ प्रेरित किए जाएं तो वे न केवल मानसिक और शारीरिक रूप से दक्ष व स्वस्थ बनेंगे, बल्कि भविष्य में पेशेवर रूप में भी उनकी कुशल व गुणवत्तापूर्ण पहचान बन सकेगी...
विश्व 'बालश्रमÓ निषेध दिवस पहली बार 2002 में शुरू किया गया था... क्योंकि 'बालश्रमÓ का विषय आज भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे विश्व की प्रचलित समस्या है... एशिया में 22 फीसदी, अफ्रीका में 32 फीसदी, लेटिन अमेरिका में 17 फीसदी, अमेरिका, कनाडा, यूरोप या धनी देशों में भी एक फीसदी से अधिक बचपन निषेध 'बालश्रमÓ की भेंट चढ़ रहा है... लेकिन भारत में सनातनकाल से उम्रवार समय-श्रम-अर्थ का एक अलग महत्व और परिभाषा निर्धारित रही है... बालकों को उनकी योग्यता एवं क्षमता के मान से नैसर्गिक दायित्व निर्वाह के असंख्य उदाहरण सामने हैं... और वे अवसर पाकर बाल्यकाल में ही अपने उज्ज्वल भविष्य का संकेत करते रहे हैं... रामायण, महाभारत के कालखंड से लेकर गुरुकुल पद्धति भी इस बात का प्रमाण देती है कि भारतवर्ष में बालकों को नैसर्गिक कौशल श्रम के साथ जोडऩे की एक प्रचलित परिपाटी रही है... क्योंकि जब बच्चों को उनकी प्रतिभा और आवश्यकता के मान से गढ़ा जाता है तो वे कुछ नया करने में सक्षम होते हैं... राम-लक्ष्मण से लेकर लव-कुश तक के जीवन की झांकी इस बात का प्रमाण है कि बच्चों को उनकी कल्पना के मान से अवसर देकर तराशा जाए तो सार्थक परिणाम मिलते हैं... महाभारत में हमने मुनि आश्रम में राजकुमारों यहां तक कि गरीब-वंचित एकलव्य को भी स्वकौशल के द्वारा अपनी प्रतिभा प्रदर्शन में दक्ष होते पाया है... हिन्दवी स्वराज के स्वप्नदृष्टा शिवाजी महाराज ने तो माँ की प्रेरणा से बचपन से ही अपनी प्रतिभा के द्वारा वह मुकाम हासिल किया, जो आज भी बालकों को प्रेरित करता है... फिर आधुनिक भारत में ऐसे कई वीर कौशल सम्पन्न बालक भी हैं, जिन्होंने अभावों के जीवन का सामने करते हुए अपनी नैसर्गिक कौशल प्रतिभा को ही जीवन का आधार बनाया...
आज सीमेंट-चमड़ा जैसे घातक कारखानों, रसायन संयंत्रों, पटाखा फैक्ट्री, बड़े मॉल, दुकान, यहां तक कि ईंट भट्टों, कोयला खनन, रेत-गिट्टी की खदानों में काम करने वाले नौनिहालों को उनके कौशल अनुसार श्रम का अवसर उपलब्ध करवाया जाए तो कुछ अलग करने में वे सक्षम हैं... क्योंकि जब एक छोटा बच्चा फिल्मों में, नाटकों में अपनी अभिनय कला के द्वारा आर्थिक धन संचय कर सकता है, जो किसी 'बालश्रमÓ निषेध कानून की श्रेणी में नहीं आता, तो किसी कुम्हार के बच्चे की कलात्मक शैली, किसी बुनकर के बच्चे का कला-कौशल, किसी रंगकर्मी के बच्चे की इंद्रधनुषी कूची नैसर्गिक कौशल श्रम का आधार क्यों नहीं बन सकती..? जरूरत है देश में 'बालश्रमÓ निधेष कानून को सख्ती से लागू कर ऐसे नौनिहालों को प्रतिबंधित 'बालश्रमÓ से मुक्ति दिलाने की, जो न केवल उनका बचपन छीन रहा है, बल्कि उनकी आंतरिक प्रतिभा व मनोदशा को भी कुंठित करने का कारण बन रहा है, इसके लिए समाज और सरकार दोनों की सक्रिय भूमिका और भागीदारी जरूरी है...