धर्मधारा
इ तिहास गवाह है कि विश्व के श्रेष्ठतम कार्य एकांत में सम्पन्न हुए है, जिस एकांत से लोग भागते रहे, उसी एकांत में महान विचारकों ने दुनिया को विस्मित करने वाले आविष्कार एवं अनुसंधान संपन्न किए हैं। जीवन के प्रति गंभीर दृष्टि रखने वाले संत, महात्मा जीवन को सर्वोच्च ग्रंथ मानते हैं, जिसके पन्नों में रहस्य-रोमांच के अद्भुत सूत्र समाहित हैं। इन जीवन-सूत्रों की विवेचना, विश्लेषण एवं व्याख्या जनसंकुल में संभव नहीं है, केवल एकांत में ही की जा सकती है। इसलिए तो कविवर रवींद्रनाथ ने 'एकला चलो रेÓ का नारा बुलंद किया। योगी, महात्मा एवं संत अपने जीवन में कभी अकेलेपन का एहसास नहीं करते। वे अकेले हो ही नहीं सकते। एक बार एक महात्मा घोर जंगल के सन्नाटे में एक वटवृक्ष के नीचे शांत, मौन एवं एकांकी बैठे हुए थे। वहां से गुजरने वाला एक यात्री भी एकाकी वहां से गुजर रहा था। वह अपने अकेलेपन से परेशान एवं चिंतित था। वह अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए किसी की तलाश में अपनी नजरें घुमा रहा था कि उसे वे महात्मा दिख गए। वह भागा-भागा गया और महात्मा को झकझोरकर कहा- 'मैं कब से किसी की तलाश कर रहा था कि उससे कुछ बातचीत करूं।Ó महात्मा ने धीरे से आंखें खोलकर उसकी दीनता पर दयार्द्र होकर कहा 'वत्स! मैं कहां अकेला था। मैं तो अपने परम प्रिय भगवान के साथ मिलन के मधुर आनंद का अनुभव कर रहा था। भगवान के साथ का अनुभव हो तो मनुष्य अपने को अकेला कहां अनुभव करता है।Ó स्वामी विवेकानंद ने अकेले रहने का उपदेश देते हुए कहा था-'अकेले रहो! अकेले रहो!! जो अकेला रहता है, न तो वह दूसरों को परेशान करता है और न दूसरों से परेशान रहता है। जीवन में अकेलापन एक वरदान बने, न कि अभिशाप।