प्रेरणादीप
ल खनऊ के भीड़-भाड़ वाले हजरतगंज चौराहे पर एक सज्जन गांधी टोपी लगाए, खादी का कुर्ता पहने किसी वाहन की प्रीतक्षा में इधर-उधर घूम रहे थे। चेहरे पर कभी मुस्कान कभी चिन्ता की बनती-मिटती रेखाएं। ऐसा लग रहा था, मानो उन सज्जन को कहीं जल्दी जाना है और वाहन नहीं मिल रहा है। आखिर एक मरियल से जूते हुए घोड़े वाले इक्के में बैठकर विश्वविद्यालय की ओर चल दिए। उनका इक्का गोमती के पुल के ऊपर पहुंचा ही था कि सामने से एक कार आकर रुकी। इक्के वाले को भी अपना इक्का रोकना पड़ा। उस कार में से एक सज्जन नीचे उतरे और अभिवादन करने के बाद बोले - आपके लिए यह कार तैयार है, इस इक्के को छोड़ दीजिए। मैं अभी आपको विश्वविद्यालय छोड़े आता हूं। आपकी इस कृपा के लिए धन्यवाद। अब विश्वविद्यालय रह ही कितनी दूर गया है। जैसी कार, वैसा इक्का, क्या अंतर पड़ता है। यह उत्तर देने वाले लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य नरेन्द्र देव थे, जिन्हें विश्वविद्यालय की एक आवश्यक बैठक में जाना था और उनकी कार कितने ही महीनों से खराब पड़ी थी। वे अपने वेतन का एक तिहाई छात्रों के हित में खर्च करते और एक तिहाई समाज हित की गतिविधियों के लिए स्वेच्छा से दान देते थे।